« سر هرمس مارانا »
صلح و آرامش از حقیقت بهتر بود



2009-12-19

آدمِ رستوران‌های مفصل نیستم. آدمِ لباس فاخر پوشیدن و مودب نشستن و مناسکِ رستوران‌روی را به‌جا آوردن. آدمِ این که پیش‌خدمت از شدتِ ادب کلمه‌هایم را دچار لکنت کند. آدمِ چنگال را با این دست برداری و کارد را با آن دست بگذاری. آدمِ لبخندزدن‌ وسطِ غذاخوردن، با لقمه‌های کوچک، زیادی کوچک. آدمِ سالن‌های پذیرایی مفصل، آدمِ راست‌نشستن و آرام‌ حرف‌زدن. دلم می‌خواهد از جایی که نشسته‌ام به لمباندنِ غذا، صاحب‌رستوران لذتم را ببیند وقتی به نیش می‌کشم لقمه‌ها را. دلم می‌خواهد هر از گاهی برگردم به طرف سرآشپز، تکه‌ای از غذا را بلند کنم سر چنگالم، سرم را تکان بدهم که یعنی چه کرده‌ای مرد! دلم می‌خواهد گارسون که می‌آید سر میز، با هم حرف بزنیم. شوخی کنیم. دلم می‌خواهد از جایی که نشسته‌ام تمام رستوران را ببینم. آدم‌ها را ببینم. صمیمی‌بودنِ فضا یعنی همین‌ها دیگر. یعنی یک جای کوزی و راحت، که بتوانی بلندبلند چیزی به سفارشت اضافه کنی. گاهی هم صاحب‌رستوران بیاید بنشیند کنارت، با هم از اغتشاش حرف بزنید.

این‌ها را گفتم برای این که وقتی می‌خواهم از رستورانِ «گشت» حرف بزنم، شماره‌ی هفده خیابانِ تختیِ الهیه، کارم راحت‌تر باشد. برای این که وقتی می‌خواهم توضیح بدهم از نظر من رستورانِ گیاهی یعنی این که اگر یک بدبختی هم دلش خواست ساندویچِ گوساله بریزد در خندق بلایش، ادویه‌ای نشانده باشند لایِ نونِ ساندویچش که دلت نخواهد هیچ‌وقت تمام بشود ساندویچت. یا وقتی سوپِ تند سبزیجاتت را داغ‌داغ می‌چشی، هی هوس کنی سرت را بلند کنی در چشم‌های صاحب‌رستوران نگاه کنی که یعنی آقا این معرکه‌ست! بعد، بعد بشقابِ سبزیجاتِ فومن. گولِ دونفره‌گی‌اش را نخورید. بعید می‌دانم یک‌نفرتان را هم سیر کند. اما به خدای کعبه قسم که آن تکه‌های قارچِ تف‌داده‌شده و آن طعم غریب و معطر سبزیِ گریل‌شده، کم از رستگاری ندارد.

یک شبِ تعطیلِ کش‌داری، دستِ آدم‌های‌تان را بگیرید و بروید گشت. قبلش هم یکی دو پیک بزنید. خواستید همراه‌تان هم ببرید، ببرید اما از سرهرمس نشنیده بگیرید. جوری بروید که شب‌تان دراز باشد. بعد با خیال راحت سرتان را گاهی بگردانید سمت تله‌ویزیونِ ال‌سی‌دیِ بزرگی که بر دیوار آویخته شده و به جای نشان‌دادنِ حیاتِ وحشِ دولتی، مستند دل‌کشی از بی‌بی‌سی دارد برای‌تان پخش می‌کند. حیاتِ وحشِ اصیل را. خانم مامکِ خادم هم اگر شانس‌تان گفته باشد برای‌تان می‌خواند. یواش و آرام. منچ دوست دارید؟ تخته‌نرد؟ هست. کنار همان چهار جلد کتابی که جا خوش کرده‌اند روی کتاب‌خانه.

دم‌جوش گل‌گاوزبان‌ اما معجونی است که همه چیز را با خودش می‌برد. خسته‌گی و دل‌مرده‌گی و دل و سرسنگینی را. آرام می‌گیرید. با هر پیاله‌ی سفالی‌ای که بالا می‌روید، بخشی از دل‌چرکی‌های‌تان شسته‌ می‌شود و می‌رود. برای همیشه.



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